जिस प्रकार जीव अनेक प्रकार के शरीरों में व्याप्त होता और फिर उसे रिक्त कर जाता है, उसी प्रकार सरयू नदी का जल पराग चूते उपवनों और चंपावनों से होकर, कलियां खिलाते जलाशयों में नया बालू भरता हुआ, माधवी लता से घिरे सुपारी के वनों से होकर गुजरता है।
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और इसीलिए अनन्तर जब हम पाते हैं कि आश्रम छोडक़र जाती हुई शकुन्तला अपनी सखियों को तो कण्व ऋषि को सौंप देती है, किन्तु ‘ अपसृत-पांडुपत्र-रूपी आँसू बहाने वाली लता से गले मिलती है, क्योंकि वह माधवी लता तो ‘ लताभगिनी ' है, तो हमें आश्चर्य नहीं होता-उस वातावरण में जीव और जीवेतर सभी का संवेदनशील होना ही सम्भाव्य है।