यथार्थ के तीव्र गति-परिवर्तन को पह्चान पाने में असमर्थता और बुद्धि-शैथिल्य तथा जड़सूत्रवादी रवैये की जकड़न उसे म्रियमाण बना रही है.
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पर कविता के केवल दृश् यमान होने से कुछ नही होता, वह दृश् यमान होते हुए भी म्रियमाण नजर आएगी।
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आप चकित होंगी यह जान कर कि मुझ जैसे नौसिखिए लेखक को वयोवृध्द संपादक ऐसी चिट्ठी लिखते हैं जो किसी म्रियमाण लेखक में भी प्राण फूंक सकती है.
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जब आज दानव कर रहा शोषण भयंकर रूप मानव का बनाये, और उठती जा रही है स्नेह, ममता की मनुज-उर-भावनाएँ, बढ़ रही हैं तीव्र गति से श्वास पर हर चिर बुभुक्षित मानवों के दग्ध-जीवन की विषैली गैस-सी घातक कराहें! ध्वंस का निर्मम मरण का, घोर काला यातना का चित्रा यह म्रियमाण है! उजड़ा हुआ है अन्दमन-सा! सिहरता तीखा मरण का गान है! आदर्श सारे गिर रहे; मानव बुझा कर ज्ञान का दीपक निविड़तम-बद्ध दुनिया देखना बस चाहता है;