रंगचित्र चाहे हाइकु के बिम्ब न भी बता रहा हो ;लेकिन इन दोनों में घनिष्ट सबन्ध होता है ।
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वास्तव में बणीठणी का एक समसामयिक रंगचित्र भी मिलता है, जिसमें वह पूजा कर रहे सावंत सिंह के पास जा रही है.
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जयपुरके रंगचित्र समृद्ध हैं और उनमें विषय वैविध्य भी हैं, परंतु न तो उनमेंबूंदी, कोटा किशनगढ़ अथवा बिकानेर जैसी शैलियों की सूक्ष्मता है, न हीराजस्थानी चित्रकला की मेवाड़ तथा मारवाड़ शैलियों के गहराते गुण.
14.
“ हाइ ” = कविता या हाइकु + “ गा ” = रंगचित्र (चित्रकला) | हाइगा की शुरुआत १ ७ शताब्दी में जापान में हुई | हाइगा में तीन तत्व होते हैं-रंगचित्र + हाइकु कविता + सुलेख |
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“ हाइ ” = कविता या हाइकु + “ गा ” = रंगचित्र (चित्रकला) | हाइगा की शुरुआत १ ७ शताब्दी में जापान में हुई | हाइगा में तीन तत्व होते हैं-रंगचित्र + हाइकु कविता + सुलेख |
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' धुंआ ' की इमेज इस कविता में आवर्ती बिंब की तरह रची गयी है, मगर ' गायें ' की तरह स्थिर रंगचित्र के रूप में नहीं, यहां हर पैरे में गतिमयता है, क्योंकि ' धुआं धुआं सुलग रहा गवालियर के मजूर का हृदय।
17.
हाइगा दो शब्दों के जोड़ से बना है … (‘‘हाइ” = हाइकु + “गा” = रंगचित्र चित्रकला) हाइगा की शुरुआत १७ वीं शताब्दी में जापान में हुई | उस जमाने में हाइगा रंग-ब्रुश से बनाया जाता था | लेकिन आज डिजिटल फोटोग्राफी जैसी आधुनिक विधा से हाइगा लिखा जाता है-
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यह विश्वविद्यालय संस्कृत, हिन्दी, आङ्ग्लभाषा, समाज शास्त्र, मनोविज्ञान, संगीत, चित्रकला (रेखाचित्र और रंगचित्र), ललित कला, विशेष शिक्षण, प्रशिक्षण, इतिहास, संस्कृति, पुरातत्त्वशास्त्र, संगणक और सूचना विज्ञान, व्यावसायिक शिक्षण, विधिशास्त्र, अर्थशास्त्र, अंग-उपयोजन और अंग-समर्थन के क्षेत्रों में स्नातक, स्नातकोत्तर और डॉक्टर की उपाधियाँ प्रदान करता हैं।
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हाइगा दो शब्दों के जोड़ से बना है … (‘‘ हाइ ” = हाइकु + “ गा ” = रंगचित्र चित्रकला) हाइगा की शुरुआत १ ७ वीं शताब्दी में जापान में हुई | उस जमाने में हाइगा रंग-ब्रुश से बनाया जाता था | लेकिन आज डिजिटल फोटोग्राफी जैसी आधुनिक विधा से हाइगा लिखा जाता है-रामेश्वर काम्बोज ‘ हिमांशु '-डॉ हरदीप कौर सन्धु, हिन्दी हाइकु से साभार
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' धुंआ' की इमेज इस कविता में आवर्ती बिंब की तरह रची गयी है, मगर 'गायें' की तरह स्थिर रंगचित्र के रूप में नहीं, यहां हर पैरे में गतिमयता है, क्योंकि 'धुआं धुआं सुलग रहा गवालियर के मजूर का हृदय।' कविता के पहले पैरे में 'लपक उठीं लहूभरी दरांतियां', दूसरे में 'धुआं धुआं सुलग रहा', तीसरे में 'कराहती धरा', और अंतिम पैरे में '...चल रहा लहूभरे गवालियर के बाज़ार में जुलूस /जल रहा धुआं धुआं / गवालियर के मजूर का हृदय।'