नेहरूवादी समाजवाद ' (जो वास्तव में राजकीय पूँजीवाद था) का खोखलापन और भारतीय संविधान की पूँजीवादी अन्तर्वस्तु जनता के सामने दिन के उजाले की तरह साफ हो चुकी थी।
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1956 के बाद सोवियत संघ के समाजवाद का सोवियत साम्राज्यवाद और राजकीय पूँजीवाद में बदलना तथा 1976 के बाद समाजवादी चीन के ‘ बाज़ार समाजवाद ' में रूपान्तरित होना एक अलग चर्चा का विषय है।
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उसमें कुछ यूटोपियाई प्रस्ताव थे और शेष जो बचता था वह नेहरू के उस कथित समाजवाद से कत्तई भिन्न नहीं था जो राजकीय पूँजीवाद और निजी पूँजीवाद का मिला-जुला रूप-मिश्रित अर्थव्यवस्था वाला पूँजीवाद था।
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जैसा की एंगेल्स ने 19 वीं शताब्दी में ही प्रदर्शित कर दिया था कि राजकीय पूँजीवाद (इसे राजकीय समाजवाद भी पढ़ा जा सकता है) और कुछ नहीं अपने सीमांतो तक खींच दिया गया पूँजीवाद है।
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तुलसी राम ने अम्बेडकर को एक महान अध्येता बताया लेकिन यह नहीं बताया कि उनके वैकल्पिक इतिहास और राजनीति में क्या सही था? अगर वह राजकीय समाजवाद की बात कर रहे हैं, तो यह वास्तव में राजकीय पूँजीवाद था।
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पूँजी की कमी को दूर करने के लिए भारतीय पूँजीपति वर्ग केवल विदेश पूँजी पर ही निर्भर नहीं रहा (इससे साम्राज्यवाद पर उसकी निर्भरता बढ़ जाती), उसने समाजवाद के नाम पर, जनता के पैसे से पब्लिक सेक्टर और राजकीय पूँजीवाद का विकास किया।
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समाजवाद के नाम पर, जनता को निचोड़कर राजकीय पूँजीवाद का जो ढाँचा (पब्लिक सेक्टर) खड़ा किया गया, वह मेहनतकशों का शोषण करने के साथ ही नौकरशाही के भ्रष्टाचार से सराबोर था और उसका असली उद्देश्य प्राइवेट सेक्टर के मालिक निजी पूँजीपतियों की मदद करना था।
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इससे बचने के लिए अन्तर साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा और साम्राज्यवादी तथा समाजवादी शिविरों के बीच के टकराव का लाभ उठाने के साथ-साथ भारतीय बुर्जुआ वर्ग ने पूँजी संचय की समस्या को हल करने के लिए राजकीय पूँजीवाद (पब्लिक सेक्टर) का रास्ता चुना और आम जनता को निचोड़कर आधारभूत एवं ढाँचागत उद्योगों का ढाँचा खड़ा किया।