राजनीतिक मुक्ति के बाद का भारत कैसा होगा, यह अभी न राजनीति का और न साहित्य रचना का ठोस मुद्दा बना था।
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ये भयभीत लेखक समाज और देश को आखिर कैसे भयमुक्त करेंगे? सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुक्ति की लौ को कैसे तेज करेंगे?
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यह एहसास भी बढ़ रहा था कि सिर्फ राजनीतिक मुक्ति ही पर्याप्त नहीं है बल्कि स्वतंत्र भारत कैसा होगा, यह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।
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और इस तथ् य को समझने में ज् यादा मुश्किल नहीं होनी चाहिए कि राजनीतिक मुक्ति का रास् ता भाषा की मुक्ति से होकर जाता है...
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मेहनतकशों की राजनीतिक मुक्ति के क्रान्तिकारी संघर्ष में दलित मेहनतकशों की भागीदारी और आर्थिक-राजनीतिक संघर्ष के साथ सांस्कृतिक-सामाजिक आन्दोलन की अनिवार्य मौजूदगी-जाति प्रश्न के आमूलगामी समाधान की राह यहीं से फूटती है।
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इसीलिए कह रहा हूँ कि आज आध्यात्मिक, सामाजिक और राजनीतिक मुक्ति की तरह साहित्यिक मुक्ति की आकांक्षा लेखक और साहित्य दोनों के जीवन और खासतौर से हिंदी के भविष्य के लिए सबसे जरूरी है।
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आशा है कोई यह दावा नहीं करेगा कि चूंकि हमें विदेशी प्रभुता से राजनीतिक मुक्ति मिल गयी मालूम होती है, सिर्फ इसलिए हम विदेशी भाषा और विदेशी विचारों के प्रभाव से भी मुक्त हो गये हैं।
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स्थापित तर्क की गहराई तक जाते हुए मार्क्स का कहना है कि मानव मुक्ति के लिए राजनीतिक मुक्ति न केवल अप्रयाप्त है बल्कि, यह किसी हद तक, उसकी स्वतंत्रता में रूकावट का ही काम करती है.
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जाओ कह दो कि गणेश पाण्डेय भी पागल हो गया है जो आध्यात्मिक मुक्ति, सामाजिक मुक्ति, राजनीतिक मुक्ति की तरह नयी सदी के दूसरे दशक के आरम्भ में ‘ साहित्यिक मुक्ति ' की बात करता है।
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दरअसल अंतिम चार पंक्तियाँ इसका स्पष्ट संकेत करती हैं कि बाबा के लिये संघर्ष के रूपों का मामला उतना महत्वपूर्ण नहीं था, बल्कि जनता की राजनीतिक मुक्ति, सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में बदलाव यानी सचमुच क्रान् ति उनका मकसद था, और उसके लिये संघर्ष के सारे रूप उन्हें मंजूर थे।