१ ८ ५५ में ऐसे मजदूरों के लिए फुले दंपत्ति ने रात्रि-पाठशाला खोली. उस समय अस्पृश्य जातियों के लोग सार्वजानिक कुएँ से पानी नहीं भर सकते थे १ ८ ६ ८ में अतः उनके लिये फुले दंपत्ति ने अपने घर का कुआँ खोल दिया।
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मद्रासियों की भीड़ से खचाखच भरे हुए रेल के डिब्बों के चार-पाँच द्रविड़ माताओं के कोलाहल में गूँजते हुए वातावरण में शेखर का मस्तिष्क अपनी रात्रि-पाठशाला, अपने शिशु और वयस्क विद्यार्थियों और उनकी पाठ्य-पुस्तकों-अब पचीस विद्यार्थी थे, जिनमें से कुछ वयस्क लोग पहले ही साक्षर थे-के प्रश्न में लीन था।
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कहते-कहते एकाएक मुस्कराकर बोली, ‘ अब मैं बड़ी हो गयी हूँ न! ' और अब शेखर अपनी बातें कहने लगा, कैसे उसकी माँ भी कठोर शासन करती है जिसमें विनय भी नहीं है, कैसे उसने कॉलेज में मित्र बनाए हैं ; अपने एंटिगोनम लीग की बातें, उसके आदर्श ; उसकी रात्रि-पाठशाला, उसकी निराशा, उसके सखा समुद्र और मन्दिर और कमल के पत्ते...