क्या हमें आज इसके संकेत नहीं दिख रहे? क्या हमें युद्ध के शोर, नफरतकी चीखों, निराशा भरे रुदन, सदियों के मंथन से राष्ट्रवाद के तल में जमे बेशुमार कीचड़ से आती वह आवाज सुनाई नहीं दे रही-एक ऐसी आवाज जो हमारी आत्मा को चिल्ला-चिल्ला कर कह रही है कि राष्ट्रीय स्वार्थ की मीनार, जो देशभक्ति के नाम पर निर्मित की गई है और जिसने स्वर्ग के विरुद्ध अपना परचम फहराया हुआ है, उसे अब अपने ही बोझ से हहराकर ढह जाना चाहिए।
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असली प्रश्न यह है कि यदि यूरोपीय संघ मजबूत होता गया तो क्या यूरोपीय राष्ट्रों की प्रभुता कमज़ोर नहीं होती चली जाएगी? पिछले डेढ़-दो सौ वर्षों में उभरे राष्ट्र-राज्य की अवधारणा का क्या होगा? इसमें संदेह नहीं कि राष्ट्रवाद हर बार जोर मारेगा और उसके कारण आपस में तनाव भी उत्पन्न होंगे, जैसे कि यूरोपीय समुदाय में पिछले पॉंच दशकों मंें हुए हैं लेकिन राष्ट्रीय स्वार्थ ही इन तनावों के हल का कारण भी होगा | निर्गुण राष्ट्रवाद के मुकाबले सगुण राष्ट्रहित की विजय स्पष्ट दिखाई पड़ रही है |