आलोक जी को बहुत-बहुत बधाई … मैं तो यह भी कहना चाहूंगा कि “ आमीन का आलोक ” ग़जल की दुनिया में दुष्यंत के बाद की लंबी खाई को उजागर करता हुआ उसके ऊपर से गुजरने का जोखिम उठाता है …
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आसमान से उतर ‘ बादली ' उस गहरी लंबी खाई में इस तरह फैली थी मानो कोई तरुणी लेटकर अपने सुडौल जांधों और वक्षों को अपनी साड़ी से ढंकने का असफल प्रयास कर रही हो, पर हवा के झोंके साड़ी को स्थिर नहीं रहने दे रहे हों.