और लोग पाठकों की कमी का रोना रो रहे हैं … सच तो यह है कि हमारे समकालीन और वरिष्ठ साहित्यकारों की आलोचकोन्मुखता और विदेशी नामों को रटने की आत्ममुग्ध और साहित्यघातक प्रवृतियों ने ऐसे ' साहित्य ग्रामों ' को साहित्य की परिधि से बहिष्कृत कर उसे एक ऐसे लघु वृत्त में बदल दिया है जहां वे अपने पुरष्कारों और महानताबोधों के साथ अकेले रहने के लिये अभिशप्त हैं …