यह प्रश्न तो उठता है कि पार्टी ने जिस पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था, जिसे मायावती का वसूली एजेंट कहा था, जिन्हें किरीट सोमैया ने खनन ठेकों में हिस्सा लेने का आरोप लगाया था, वही अब पार्टी के लिए स्वीकार्य कैसे हो गया? निस्संदेह, यह नैतिक प्रश्न भाजपा के सामने सशक्तता से खड़ा है, लेकिन संसदीय जनतंत्र में जिस तरह चुनाव जाति और शक्ति तक सीमित हो रहा है उसमें सत्ता की राजनीति करने वाले दलों के लिए ऐसे नैतिक प्रश्नों की उपादेयता इस समय निःशेष हो चुकी है।