वास्तविक सत्ता केवल विकाररहित शुद्ध सच्चिदानंद ब्रह्म की ही है जिसमें सृष्टि न कभी हुई, न होगी।
12.
अतः हमारा मस्तिष्क जितना विकाररहित होगा उतना ही हम प्रत्येक बात की वास्तविकता का शुद्ध विश्लेषण कर पायेंगे।
13.
भावार्थ:-ऐसे विकाररहित प्रभु के हृदय में रहते भी जगत के सब जीव दीन और दुःखी हैं।
14.
ज्ञानविज्ञान से तृप्त विकाररहित अंतकरण वाला ही धारणा स्थापित कर ध्यानयोग में प्रतिष्ठत हो सकेगा, ऐसा श्रीकृष्ण का मत है।
15.
इसी प्रकार सब जगह तुल्य युक्ति से विकाररहित सम्पूर्ण जगत प्रकृतिभूत एक ही वस्तु है, ऐसा युक्ति से प्रतीत होता है।
16.
भावार्थ:-प्रकृति से परे, प्रभु (सर्वसमर्थ), सदा सबके हृदय में बसने वाले, इच्छारहित विकाररहित, अविनाशी ब्रह्म हैं।
17.
वह सिर्फ उन्हें ही अनुभव में आना शुरू होता है, जो इतने विकाररहित हो गए होते हैं कि अब नग्न हो सकते हैं और प्रकट हो सकते हैं।
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और विकाररहित दिखाई पड़ती है बिलकुल ; क्योंकि जब दिखाई पड़ती है तो विकाररहित ही दिखाई पड़ती है, स्वप्न जैसी शुद्ध सत्य मालूम पड़ती है, वास्तविक मालूम पड़ती है।
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और विकाररहित दिखाई पड़ती है बिलकुल ; क्योंकि जब दिखाई पड़ती है तो विकाररहित ही दिखाई पड़ती है, स्वप्न जैसी शुद्ध सत्य मालूम पड़ती है, वास्तविक मालूम पड़ती है।
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भावार्थ: जिसका अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है, जिसकी स्थिति विकाररहित है, जिसकी इन्द्रियाँ भलीभाँति जीती हुई हैं और जिसके लिए मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण समान हैं, वह योगी युक्त अर्थात भगवत्प्राप्त है, ऐसे कहा जाता है॥8॥