कुछ पुराने साथी-दोस्त हैं, जिनका हर साल लगभग एक जैसा संदेश होता है “हम मेहनतकश इस दुनिया से, जब अपना हिस्सा मांगेगे, इक गांव नहीं, इक खेत नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे!” या “जिस खेत से दहकां को मयस्सर नहीं रोटी, उस खेत के हर गोश-ए-गंदुम को जला दो!” इन संदेशों में कहीं थकान, हताशा, असफलताओं से उपजी विश्वासहीनता और नये शहरी संपन्न मध्यवर्ग में हर रोज़ गहराती जाती सत्ता और पूंजी के हासिल से मिलने वाली महत्वाकांक्षा के सामने अपनी टूट और विखंडन का दर्द भी दिखता है।