दूसरे, स्वः पं ० नरेन्द्र शर्मा की इन पंक्तियों को पढ़ कर हृदय विह्वल हो उठा: ‘ सत्य हो यदि, कल्प की भी कल्पना कर, धीर बांधूँ, किन्तु कैसे व्यर्थ की आशा लिये, यह योग साधूँ! जानता हूँ, अब न हम तुम मिल सकेंगे! आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे? …..
12.
-मैं अपने लेख में पूज्य नरेन्द्र शर्मा जी की निम्न पंक्तियों की बात कर रहा था किंतु ' कादम्बिनी' के संपादक ने यह पंक्तियां ना जाने किस कारण से नहीं छापीः ‘सत्य हो यदि,कल्प की भी कल्पना कर,धीर बांधूँ, किन्तु कैसे व्यर्थ की आशा लिये,यह योग साधूँ! जानता हूँ, अब न हम तुम मिल सकेंगे! आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?'
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-मैं अपने लेख में पूज्य नरेन्द्र शर्मा जी की निम्न पंक्तियों की बात कर रहा था किंतु ' कादम्बिनी' के संपादक ने यह पंक्तियां ना जाने किस कारण से नहीं छापीः 'सत्य हो यदि,कल्प की भी कल्पना कर,धीर बांधूँ, किन्तु कैसे व्यर्थ की आशा लिये,यह योग साधूँ! जानता हूँ, अब न हम तुम मिल सकेंगे! आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे?'