उसका संकल्प भाषा में विन्यस्त एक ऐसी संघटना होने का है जिसमें गुरूजी, कोटवार, जिवराखन, डेहरिन, मुन्ना, मुन्नी, पत्नी, पाठशाला, थाना, बन्दूक जैसे तमाम, लगभग पूरी तरह निराविष्ट, ‘शब्द' मिलकर गाँव नामक ‘पाठ' की रचना कर सकें-नितान्त अपनी शाब्दिकता के बूते पर, ऐन्द्रिय अनुभूतियों, भावनाओं, विचारों के संसाधन-तन्त्रों का किसी भी तरह सहारा लिये बगैर. जहाँ ‘प्रेम' या ‘सुख' या ‘गरीबी' शब्द ही प्रेम या सुख या ग़रीबी हों और लकड़ी की बन्दूक के साथ बोला गया ‘धाँय' शब्द ‘मृत्यु' शब्द का कारण हो. पद के सहारे अर्थ को ही पदार्थ के रूप में पाने का संकल्प.