“ रंजीत के साथ मत खेला करो ” कविता स्वच्छ तर्क के साथ जमा की हुई नैतिक भाषा का पूरा दांव लगाने के बाद अंततः स्पष्ट करती है, कि पीड़ा की कुछ हद तक की जाने वाली शाब्दिक परिभाषा को बोध से जोड़कर कैसा चित्र बनता है, और चुनांचे पीड़ा का बोध ही पीड़ा को कह सकता है, इस आधार पर कहा जा सकता कि यह कविता पीड़ा का शाब्दिक पर्याय है, जो भावबोध, शाब्दिक हेतुवाद और साहित्य में उपस्थित होकर निभाए जाने वाले नियमों का चिट्ठा है ।