ये प्रतिरूप पाँच में विभक्त हैं,-पच्चा (हरा), कत्ति (छुरि), करि (काला), दाढी और मिनुक्कु (मुलायम, मृदुल या शोभायुक्त) ।
12.
शोभायुक्त यज्ञ मण्डप अत्यन्त आकर्षक था जिसे देख कर राम ने कहा, “हे गुरुदेव! इस यज्ञशाला की छटा मेरे मन को मोह रही है और विद्वान ब्राह्मणों के आनन्द दायक मन्त्रोच्चार को सुन कर मैं पुलकित हो रहा हूँ।
13.
औषधियों में रस डालें वाला है, लक्ष्मे के साथ समुद्र से उत्पन्न होने के कारण लक्ष्मी का भाई है और अत्यंत शीतल, चमकीला, और शोभायुक्त है परन्तु सूर्य के निकट पहुँचते ही एकदम निस्तेज हो जाता.
14.
आकर्षक शोभायुक्त यज्ञ मण्डप को देख कर राम ने कहा, ” हे गुरुदेव! इस यज्ञशाला की छटा मेरे मन को मोह रही है और विद्वान ब्राह्मणों के आनन्द दायक मन्त्रोच्चार को सुन कर मेरा मन पुलकित हो रहा है।
15.
दिगम्बर संप्रदाय वाले जैन अपनी नित्य पूजा में केशर, चंदन, द्वारा अथवा अन्य पवित्र द्रव्य की सहायता से ' स्वस्तिक् ' अंकित करते हैं और उसके चारों कोण तथा मध्य भाग को पाँच बिंदियाँ देअक्र और भी शोभायुक्त बनाते हैं।
16.
संसार की शोभा तो इसी में है कि वृद्ध और निष्क्रिय हो चुके लोग संसार से जाते रहें और उनके स्थान पर नये जीव पैदा होते रहें, तभी संसार शोभायुक्त बना रह सकता है, इसीलिये जीवों का आवागमन इसकी सुन्दरता और सुव्यवस्था के लिये अनिवार्य है।
17.
जैसे कीडा घाव में रस का स्वाद लेने के लिये बैठता है, परन्तु रस लेता-लेता उसी में मर जाता है, वैसे ही घर में स्त्री, बाल-बच्चों में तथा चिकने चुपडे कोमल पदार्थों के स्वाद में अपना जीवन नष्ट कर देना न शोभायुक्त है, न बुद्धिमानी।
18.
शिवजी कहते हैं हे शिवे! संसार चक्र स्वरूप श्रीचक्र में स्थित बीजाक्षर रूप शक्तियों से दीप्तिमान एवं मूलविद्या के 9 बीजमंत्रों से उत्पन्न, शोभायमान आवरण शक्तियों से चारों ओर घिरी हुई, वेदों के मूल कारण रूप आंेकार की निधि रूप, श्री यंत्र के मध्य त्रिकोण के बिंदु चक्र स्वरूप स्वर्ण सिंहासन में शोभायुक्त होकर विराजमान तुम परब्रह्मात्मिका हो।
19.
मंगलम्|| अर्थ-शोभायुक्त और नमस्कार करते हुए देवेन्द्रों और असुरेन्द्रो के मुकुटों के चमकदार रत्नों की कान्ति से जिनके श्री चरणों के नखरुपी चन्द्रमा की ज्योति स्फुरायमान हो रही है, और जो प्रवचन रुप सागर की वृद्धि करने के लिए स्थायी चन्द्रमा हैं एवं योगीजन जिनकी स्तुति करते रहते हैं, ऐसे अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पांचों परमेष्ठी हमारे पापों को क्षय करें और हमें सुखी करें|2|
20.
मधु पवन से क्रीडित शाल वृ्क्ष की ही भान्ती श्रद्धा की मूर्ती शोभायुक्त एवं गान्धार देश के स्निग्ध नीले रोम वाले मेषों के चर्म उसके कान्त विपु को आच्छादित कर रहे थे जो कि एक आवरण के समान था. उस आवरण में कवि नें नील परिधान के बीच श्रद्धा के अधखुले गोरे अंग के लिए श्याम मेघों के बीच गुलाबी रंग के बिजली के फूल की कल्पना करते हुए श्याम और गुलाबी वर्णछटाओं की योजना की है.