फिर भी, जागीर खत् म हो जाने पर गोविंदसिंह ने उफ तक नहीं की और ' हरि इच् छा ' कहकर संकट-काल के लिए संचित पैतृक-निधि या जर-जेवर बेचकर गुजारा करने लगे।
12.
कम-से-कम हिन्दुओं को तो इस संकट-काल में देशहित में एक हो ही जाना चाहिए और अगर ऐसा नहीं हुआ तो फिर वो दिन दूर नहीं जब इस देश का एक नाम हिन्दुस्थान या हिन्दुस्तान न होकर चीन या पाकिस्तान हो जाएगा।
13.
वैसे मैं कविताएं ज्यादा पढ़ता हूं. कबीर, निराला और शमशेर गहन संकट-काल में मेरे काम आते हैं. ‘ यार से छेड़ चली जा ए... ' की तरह बाबा नागार्जुन के समग्र रचना-संसार से मेरा आत्मीय संबंध है.
14.
प्रतिदिन की योग्यताएं तथा प्रतिदिन काम आने वाली शक्तियां भी आवश्यकहैं, परन्तु वे साधारण मांग की ही पूर्ति कर सकती हैं, संकट-काल तो किसीअन्य प्रकार की विशिष्ट योग्यता एवं सामर्थ्य की मांग करता है और इसकेलिए शक्ति की अतिरिक्त मात्रा आवश्यक होती है.
15.
अब नाम लेकर डाटूँ नहीं तो क्या सिर पे बिठाऊँ? पर घर पर कह तो नहीं सकती न! फिर जब सामने हों ऐसी निष्ठावतियाँ जो पितंबर के हित में सितंबर का उच्चाटन कर डालें, तो मुझे अपनी भद्द पिटवानी है क्या? वैसे भी संकट-काल में इतना झूठ तो विहित है! *
16.
भारत ने इस संकट-काल में जो बहुमूल्य सहायता की, उसकी सब ब्रिटिश-राजनीतिज्ञों ने सराहना की, और भारतीयों के मन में यह आशा पैदा कर दी गई कि जो युद्ध प्रत्यक्षतः राष्ट्रों के स्वभाग्य निर्णय के सिद्धान्त तथा प्रजातंत्री-शासन को सुरक्षित करने के उद्देश्य से लड़ा जा रहा है उसके फलस्वरूप भारत में भी उत्तरदायी शासन की स्थापना हो जाएगी।
17.
संभालने के पुर्व ही जिसके सर पर से माता-पिता के वात्सल्य और संरक्षण की छाया सदा-सर्वदा के लिए हट गयी, होश संभालते ही जिसे एक मुट्ठी अन्न के लिए द्वार-द्वार विललाने को बाध्य होना पड़ा, संकट-काल उपस्थित देखकर जिसके स्वजन-परिजन दर किनार हो गए, चार मुट्ठी चने भी जिसके लिए जीवन के चरम प्राप्य (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष)
18.
संभालने के पुर्व ही जिसके सर पर से माता-पिता के वात्सल्य और संरक्षण की छाया सदा-सर्वदा के लिए हट गयी, होश संभालते ही जिसे एक मुट्ठी अन्न के लिए द्वार-द्वार विललाने को बाध्य होना पड़ा, संकट-काल उपस्थित देखकर जिसके स्वजन-परिजन दर किनार हो गए, चार मुट्ठी चने भी जिसके लिए जीवन के चरम प्राप्य (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष)
19.
होश संभालने के पुर्व ही जिसके सर पर से माता-पिता के वात्सल्य और संरक्षण की छाया सदा-सर्वदा के लिए हट गयी, होश संभालते ही जिसे एक मुट्ठी अन्न के लिए द्वार-द्वार विललाने को बाध्य होना पड़ा, संकट-काल उपस्थित देखकर जिसके स्वजन-परिजन दर किनार हो गए, चार मुट्ठी चने भी जिसके लिए जीवन के चरम प्राप्य (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष)
20.
होश संभालने के पुर्व ही जिसके सर पर से माता-पिता के वात्सल्य और संरक्षण की छाया सदा-सर्वदा के लिए हट गयी, होश संभालते ही जिसे एक मुट्ठी अन्न के लिए द्वार-द्वार विललाने को बाध्य होना पड़ा, संकट-काल उपस्थित देखकर जिसके स्वजन-परिजन दर किनार हो गए, चार मुट्ठी चने भी जिसके लिए जीवन के चरम प्राप्य (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष)