लेकिन प्रांतीयतावाद, संजातीय भाषिकतावाद (एथनोलिंग्विज़्म) और देसीवाद या मूलवाद (नेटिविज़्म) की जो लहर पिछले कुछ दशकों से सामने आ रही है और इससे निपट पाने में जिस तरह से हमारी तथाकथित राष्ट्रीय पार्टियाँ नाकाम रही हैं वह दिन दूर नहीं जब इस आधार पर भी देश में नई विभाजनकारी ताकतें सक्रिय हो जाएँ और हमारे संघीय ढाँचे का ही अस्तित्व खतरे में पड़ जा ए.
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उन्हीं के वंशज महाराजा हरिसिंह भारत के विभाजन के समय यहां के शासक थे और भारत के अधिकांश अन्य रजवाड़ों की भांति ही उन्हें भी भारत के विभाजन अधिनियम १ ९ ४ ७ के अन्तर्गत्त ये विकल्प मिले कि वे चाहें तो अपने निर्णय अनुसार भारत या पाकिस्तान से मिल जायें या फ़िर स्वतंत्र राज्य ले लें ; हालांकि रजवाड़ों को ये सलाह भी दी गई थी कि भौगोलिक एवं संजातीय परिस्थितियों को देखते हुए किसी एक संप्रभुता (डोमीनियन) में विलय हो जायें।