इन संदर्भों व संस्थागत आधार पर अपनायी हुई ये धारणायें इतनी बलवती व जड़वान होती हैं कि उनसे बाहर निकलना तो दूर इन धारणाओं पर कोई भी तथ्यपूर्ण तर्क-वितर्क अथवा परिचर्चा भी इन धारणाओं के आधारभूत व पोषक संस्थाओं को अस्वीकार्य होता है व वे इन तर्कों व परिचर्चाओं के दमन हेतु किसी भी तरह के आक्रमण व हिंसा को अपना सकते हैं।
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' फिर भी, उनकी मान्यता यह है कि ' जिस प्रकार समाज में प्रचलित व्यवहारों में कुछ ही अनुकरणीय होते हैं, शेष अन्य को हम बर्दाश्त करते हैं, इस प्रकार हिंग्लिंश को भी हम बर्दाश्त करेंगे, करना पड़ेगा, पर उसके अनुकरण को भाषा सौष्ठव की दृष्टि से सब प्रयोजनों के लिए संस्थागत आधार पर प्रोत्साहित न करना ही उचित होगा।