इनके आचरण, संवेदनशीलता, सीमित सकर्मकता को देखते हुए क्या ये सचमुच रोगी लगते हैं? डा. विश्वनाथ त्रिपाठी द्वारा निराला पर लिखी कविता ‘ पागल ' की याद आती हैं-ओ, नजरूल इस्लाम, रूसो, वान गाग के साथी हमें तुम्हें पागल कहते हैं किंतु हमें तुम क्या कहते हो? परसाई ने समाज रक्षक होने का दंभ करने वालों, करूणा का प्रदर्शन करने वालों, करूणा चुराने वालों और करूणावान होने में समर्थ लेकिन उससे विमुख लोगों पर सीधा व्यंग्य भी किया है।
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अब जबकि दूसरों के घर और मन तक जाने के गोरखधंधे में दिल पर कई खरोंचें भी लग चुकी हैं (मेरी तो मैं कह ही रहा हूँ, दूसरों के जो मैंने लगाई होंगी वे भी), अब जबकि दूसरों के घर और मन तक जाने का इरादा पहले जितना निश्चय भरा तो कतई नहीं है, अब जबकि सद्कामना और सकर्मकता का भेद अपनी विज्ञापित जटिलता तज कर अपनी सहज सरलता की ओर बढ़ रहा है मेरे लिए, तो यह कविता हर दूसरे दिन याद आती है.