जाहिर है कि ऐसे सनसनीखेज शीर्षक और खबरें देने से रिपोर्ट को ज्यादा फोकस मिल सकता है पर इस प्रक्रिया में पत्रकारिता की जिम्मेदारी और नैतिकता का क्या हश्र हो रहा है?
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आपातकाल में जब देश भर के अखबार इन्दिरागाँधी की सरकार के चरणों में लोट लगा रहे थे-एकमात्र ब्लिट्ज़ ऐसा अखबार था जिसने आपातकाल मेंलगी प्रेस सेंसरशिप को यह कहकर चुनौती दी थी कि सेंसर खबरों पर है खबरों के शीर्षक पर नहीं और उन्होंने सेंसर की हुई खबरों पर एक से एक सनसनीखेज शीर्षक देकर सरकार की नींद उड़ा दी थी।
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पाठकों की रुचि का परिष्कार करने की बजाय उनका अनुकूलन करने, मूढ़मति को और मूढ़ बनाने (डम्बिंग डाउन), चटखारेदार खबरें, सनसनीखेज शीर्षक, सबसे पहले की होड़, निजी जिन्दगी में दखल, मीडिया ट्रायल, छवि चमकाने या धूमिल करने की जबर्दस्त मारामारी के जरिए सफलता पाने का जो मायाजाल रचा गया, उस पर ये पहला तगड़ा प्रहार है।