आम सभ्य जन और प्रशासन कब तक बधिरों की नाई निष्क्रिय बने रहेंगे??? हमें स्वयं अनावश्यक ध्वनि विस्तारक यंत्रों के प्रयोग कम करने होंगे ।
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भूल से अगर कोई भला मानुष बनने की कोशिश करता दिखाई देने लगे तो बाकी के सभ्य जन की नज़र में वह मूर्ख के दर्जे में आ जाता है.
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गुरु मान गये गालियों का भी सामाजिक महत्त्व होता है, सिर्फ़ निर्मल मन का व्यक्ति ही गाली दे सकता है बाकी सभ्य जन तो मानवता का खून करने में व्यस्त इस बेहतरीन पोस्ट के लिए धन्यवाद
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सभ्य जन कहीं जा रहे हों या किसी वार्ता में मशगूल हों आमतौर पर यह देखने में आता है कि वे एक विचित्र प्रकार की मुद्रा उस समय जरूर धारण कर लेते हैं जब उनके बोलने की जरूरत सर्वाधिक होती है.
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यों तो बड़ी-बड़ी बातें करना और देश-विदेश की राजनीति से लेकर समाज और व्यापार पर समीक्षा कर डालना सभ्य जन के लिए चुटकियों का काम होता है लेकिन जब बात आती है किसी अन्याय के विरोध की तो उनकी चुप्पी ऐसी होती है जैसे कोई संत समाधि की अवस्था में हो.
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अगर दूर ना जाए विभाजन के समय ऐसी गन्दी राजनीती खेली गयी जिससे बेवजह वो मारकाट मची जिसे देखकर किसी भी बौद्धिक क्षमता हांसिल किये हुए किसी भी सभ्य जन का सर शर्म से निचे झुक सकता हैं l खैर छोडिये ये इतिहास था जो कुछ हो गया अब कर भी क्या सकते हैं..
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तो उधर सभ्य जन जो पुलिसिया उपक्रम इत्यादि के तहत फांसे गए होते हैं, अपने बचाव के लिए इन्हीं की शरण में जाते हैं, वे खुद तो बच जाते हैं पर सब कुछ लुटा बैठते हैं और फिर यही सब्र कर लेते हैं कि चलो जान बची तो लाखों पाए जबकि यहां पर लाखों के निवेश पर जान का डिवीडेंड मिलता है।
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तो उधर सभ्य जन जो पुलिसिया उपक्रम इत्यादि के तहत फांसे गए होते हैं, अपने बचाव के लिए इन्हीं की शरण में जाते हैं, वे खुद तो बच जाते हैं पर सब कुछ लुटा बैठते हैं और फिर यही सब्र कर लेते हैं कि चलो जान बची तो लाखों पाए जबकि यहां पर लाखों के निवेश पर जान का डिवीडेंड मिलता है।