वियोग ही श्रृंगार का मूल तत्व है. जो इस वियोग की चेतना से संपृक्त नहीं हुआ समझो वह श्रृंगारिकता के सहज बोध से ही प्रवंचित रह गया-
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यह तमाम सन्देश पैरा-सिम्पेठेतिक मार्गों से गुज़रतें हैं. पेचीला संवेगों की इस गुत्थी को हम सहज बोध से जान समझ,बूझ कर हंस देते है या रोने लगतें हैं.
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और कवि सहज बोध से जानता है कि उससे दूसरे तक पहुँचा जा सकता है, उससे संलाप की स्थिति पायी जा सकती है, क्योंकि वह जानता है कि मौन के द्वारा भी सम्प्रेषण हो सकता है।
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अब मैं मानस का कोई व्यास तो हूँ नहीं कि हर पंक्ति हर दोहा प्रसंग सहित मुझे याद रहे फिर भी सहज बोध से बता दिया कि सुन्दरकाण्ड का होना चाहिए और हनुमान या अंगद द्वारा कहा होना चाहिए.
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बची खुची मछलियाँ सहज बोध से पानी के बहाव के विपरीत दशा में ऊपर की उथली जगह तक प्रजनन के लिए पहुँचती तो हैं मगर वहां मानवीय दखलंदाजी (anthropogenic factors) के चलते इनकी सहज ब्रीडिंग नहीं हो पाती...
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इसी को धुर अंग्रेज लोग आर्म चेयर क्रिटीसिज्म कहते भये हैं-और मैं इस जुमले को अक्सर लोगों की ओर उछालता रहता हूँ, किसी सुचिंतित भाव से नहीं बल्कि सहज बोध से-अली जी दुखी तो आपको होना ही है-यह मानव का विशेषाधिकार जो है!