कविगण, सही है कि यह वक़्त आपका नहीं, लेकिन इतना बुरा भी नहीं जिसे आप इस क़दर संदेह और नफ़रत से देखें इस वक़्त बहुत सारे नामालूम से प्रतिरोध गुत्थम-गुत्था हैं सदियों से चले आ रहे जाने-पहचाने अन्यायों से यह वक़्त हैवानियत को कहीं ज़्यादा साफ़ ढंग से पहचानता है यह अलग बात है कि हाथ मिलाने को मजबूर है उससे सही है कि देह अब भी सह रही है चाबुक का प्रहार लेकिन पीठ पर नहीं.