१५८७ईस्वी में राजा वोडियार के उद्भव तक, मैसूरराज्य विजयनगर साम्राज्य के अंतर्गत एक छोटा सा सामंतीय राज्य था।
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दरअसल उस दौर तक जाति-व्यवस्था, भारत की सामंतीय उत्पादन-व्यवस्था को बनाये रखने में प्रमुख भूमिका निभाती है.
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भूमंडलीयकरण के तहत बहुराष्ट्रीय अस्मिता बोधक बहुलता-वाद एक तरह से सामंतीय दौर की जाति-मजहब की संरचनाओं का कबरा है।
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आज के नव्य-उदारवादी बाजारीकरण के दौर में भी भारतीय या विश्व के विखंडित समाज की परम्परागत सामंतीय नकारात्मकता सर चढ़कर बोल रही है.
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परंतु अठाहरवीं सदी में सामंतीय निजाम फिर से बिखर गया, तो जाति-मजहब के पार ले जा सकने वाले नवजागरण के लिए एक भूमिका बनी।
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इस अंतर्विरोध का फ़ायदा सामंतीय वर्चस्व उठाता है और भोग-संपदा पर अपने एकाधिकार को बनाये रखने के लिये वह, भक्ति के आराध्य-देवों की मदद लेता है.
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हालांकि इस आर्थिकता के नवसाम्राज्यवादी एजेंडे के खिलाफ मध्य एशिया के ' मुस्लिम भाईचारे' के रूप में, सामंतीय दौर की 'उम्मा' वाली संरचना अभी खासी मजबूत है।
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जाति व्यवस्था टूटती है तो भारत की सामंतीय व्यवस्था आमूलचूल तबाह हो जाती है और हमारे लिए एक नई रूपांतरित व्यवस्था को खोजना जरूरी हो जाता है।
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इस अंतर्विरोध का फ़ायदा सामंतीय वर्चस्व उठाता है और भोग-संपदा पर अपने एकाधिकार को बनाये रखने के लिये वह, भक्ति के आराध्य-देवों की मदद लेता है.
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और तीसरा, जो भारतीय जातिगत संरचना वाले समाज में दिखाई पड़ती है, वह है गाँव के जातिगत तिरस्कार तथा सामंतीय त्रास से मुक्ति पाने के लिए शहरों के शरणागत होना।