सेठाश्रित पत्रिकायें उन रचनाओं को छापने में आनाकानी करती थी जो समकालीन यथार्थ, समाज के अंर्विरोध तथा अग्रगामी सामाजिक गतिकी-सोशल डायनामिकस की सही दिशा तथा आवेग थे उसे या तो विकृत करती थी या फिर उसे नकारती थी।
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इसका जवाब आगे के अध्याय में उन्हें प्रसिद्ध विचारक बर्गर के सिद्धांत में मिलता है, जहां वह अपनी मूल प्रकृति में 'नास्तिक' भारतीय संविधान का जिक्र करते हुए कहती हैं, 'विडंबना यह है कि धर्मनिरपेक्ष शिक्षा तक साथ ही साथ पहुंच को और लोकतांत्रिक बनाने के बजाय उच्च हिंदूवाद तक पहुंच को लोकतांत्रिक बना दिया गया, जिसने एक कम धर्मनिरपेक्ष नागरिक समाज को जन्म दिया।' ' इस तरह भारत द्वारा धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद को गले लगाने की सामाजिक गतिकी बर्गर के सिद्धांत को पुष्ट करती है, साथ ही बर्गर के मुताबिक इसने भारत में 'चेतना का धर्मनिरपेक्षीकरण' नहीं किया है।