सुख के सीमित सामाजिक भूगोल की निर्मम, रोज़ की तक़लीफ़देह सच्चाई को, थोड़ी देर को ही सही, झुठलाकर, समूचे समाज के सुख के नगाड़े की तरह पीटती रहे, कि अख़बार और टीवी के पर्दों पर बड़ी उदासियां छुपी रहें, छिप जायें.
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अशोक वाजपेयी: आप जिस ' पैराडाइम शिफ्ट ' की बात कर रहे हैं, उससे मैं यह समझता हूं कि हिंदी आलोचना अभी इस प्रश्न से बराबर जूझ रही है कि यह जो सामाजिक भूगोल बदला है, इससे कैसे निपटें.