यह मार्गदर्शिका कृषकों, पंचायती राज संस्थाओं, रेखीय विभागों, स्वयंसेवी संस्थाओं, आदि के लिए म-नरेगा अंन्तर्गत सामूहिक भूमि में चारा विकास कार्यक्रम को क्रियान्वित करनें में उपयोगी व सहायक सिद्ध होगी।
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चाहे वह पुजारी हो अथवा कृषक, व्यापारी या मंदिर से संबंधित बढ़ई, लोहार अथवा अन्य कारीगर, या श्रमिक, सभी को सामूहिक भूमि में श्रम व काम करना पड़ता था।
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साम्राज्यों के चकाचौंध करने वाले ऐश्वर्य में संस्कृति की आत्मा, समता, स्त्री-पुरूष की समानता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ एक सामूहिक जीवन और छोटे-बड़े सभी के सामूहिक भूमि में श्रम की अनिवार्यता भी लोकतंत्र के साथ गई और आई सामी सभ्यताओं की पादशाही।
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साम्राज्यों के चकाचौंध करने वाले ऐश्वर्य में संस्कृति की आत्मा, समता, स्त्री-पुरूष की समानता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ एक सामूहिक जीवन और छोटे-बड़े सभी के सामूहिक भूमि में श्रम की अनिवार्यता भी लोकतंत्र के साथ गई और आई सामी सभ्यताओं की पादशाही।
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इस मार्गदर्शिका में सामूहिक भूमि में चारा संसाधनों के विकास के लिए म-नरेगा अन्तर्गत योजना स्वीकृति करने की प्रक्रिया, चारा घास-पौधरोपण तकनीकों, जल व मृदा संरक्षण तकनीकों, चारा उत्पादन क्षेत्रों का प्रबन्धन एवं रखरखाव, चारे के उत्पादन का आंकलन, आदि के सम्बन्ध में जानकारी दी है।
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हालाँकि वास्तविकता यह है कि अधिकांश गाँवो में स्थानीय निवासियों ने अपने छोटे-छोटे उद्देश्यों, जैसे घास आदि के लिए, अपनी नाप या भूमिधरी भूमि से लगी जमीन को कब्जे में कर रखा था और बेनाप का बड़ा हिस्सा गाँव की सामूहिक भूमि के रूप में ही स्थापित था।
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वे बडे़ किसान, जिन्होंने हदबंदी कानून को बेनामी तथा फर्जी बंदोबस्तियों के जरिए धोखा दिया है, वे भद्र लोग जिन्होंने सरकारी जमीन और गांव की सामूहिक भूमि हड़प रखी है, वे भूपति जिन्होंने अपने बटाईदारों को कानूनी हक देने से हमेशा इनकार किया है और उन्हें अपनी जमीन से बेदखल किया है...
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वे बडे़ किसान, जिन्होंने हदबंदी कानून को बेनामी तथा फर्जी बंदोबस्तियों के जरिए धोखा दिया है, वे भद्र लोग जिन्होंने सरकारी जमीन और गांव की सामूहिक भूमि हड़प रखी है, वे भूपति जिन्होंने अपने बटाईदारों को कानूनी हक देने से हमेशा इनकार किया है और उन्हें अपनी जमीन से बेदखल किया है...
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आज की परिस्थितियों में हम देखते हैं कि जमीन से संबधित महकमे, चाहे राजस्व विभाग हो अथवा वन विभाग, अपनी ईमानदारी को कब का त्याग चुके हैं और जब भी गाँवों की सामूहिक भूमि को लेकर कोई विवाद होता है तो सच उजागर करने के बजाय बिल्डर व बाहरी व्यक्तियों के पक्ष में खड़े दिखते हैं।
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अतः इसका विधिक स्वरूप सामूहिक भूमि या ग्राम समाज की भूमि के रूप में स्थापित होना आवश्यक है, ताकि पहाड़ों की भूमि का जो कॉलोनियां बनाकर दुरुपयोग हो रहा है व बिल्डरों द्वारा अस्पष्ट आदेशों का सरकारी मुलाजिमों की मदद से लाभ उठाकर स्थानीय ग्रामीणों के हितों व अधिकारों का हनन किया जा रहा है, उस पर अंकुश लग सके।