इससे अलग, समकालीन कविता का बहुलांश, ख़ासतौर पर युवतर पीढ़ी का रचना-संसार अपनी स्वायत्तता और निपट स्वकीयता के आग्रह को त्याग कर कविता की सौन्दर्य-प्रक्रिया को सामाजिक विकास की समकालीन प्रक्रिया की संगति में सम्भव करने के प्रयत्न में आकार ग्रहण करता है।
12.
इसके बारे में बता रहे हैं अर्यमन चेतस पांडे-स्वकीयता और परकीयता-पारस्परिक वैलोम्य में अवगुण्ठित दो भाव, एक-दूसरे की वैयक्तिकता की गरिमा का सम्मान करते हुए, अपनी शुचिता की मर्यादा में रहते हुए अपर्णा मनोज भटनागर जी एक गहन विषय ले कर आई हैं-इरोम शर्मीला को समर्पित-मुक्ति अपनी मुक्ति के लिए मुझे नहीं देखना था आकाश का विस्तार नहीं गिनने थे तारे नहीं देखनी थी अबाध नदी की धाराएं या पर्वत की ऊंची होती चोटी.