वे छायावाद के कल्पनाजन्य निर्विकार मानव के खोखलेपन से परिचित हो चुके थे, उस पार की दुनिया के अलभ्य सौन्दर्य का यथेष्ट स्वप्न दर्शन कर चुके थे, चमचमाते सैकत प्रदेश में संवेदना की मरीचिका के पीछे दौड़ते थक चुके थे, उस लाक्षणिक और अस्वाभिक भाषा शैली से उनका जी भर चुका था, जो उन्हें बार-बार अर्थ की गहराइयों की झलक सी दिखाकर छल चुकी थी।
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वे छायावाद के कल्पनाजन्य निर्विकार मानव के खोखलेपन से परिचित हो चुके थे, उस पार की दुनिया के अलभ्य सौन्दर्य का यथेष्ट स्वप्न दर्शन कर चुके थे, चमचमाते सैकत प्रदेश में संवेदना की मरीचिका के पीछे दौड़ते थक चुके थे, उस लाक्षणिक और अस्वाभिक भाषा शैली से उनका जी भर चुका था, जो उन्हें बार-बार अर्थ की गहराइयों की झलक सी दिखाकर छल चुकी थी।
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नमस्कार स्वामीजी, जो भी विधि है या जो भी सूत्र है लेकिन जब ओशो बोलते है तब एक ही बात को कितने-कितने आयमों में परिस्फुट करते है, इतना ही नहीं हमें लगता है कि एक बिन्दू के सूक्ष्म से सूक्ष्म क्षण को समझाने के लिए ओशो कितना प्रयास करते है, लेकिन ओशो के लिए ये बात अत्यंत सहज-सरल हों! हम स्वप्न में जैसे स्वप्न दर्शन करते है वैसे उस अन्तराल बिन्दू का बोध हों यही कामना है. धन्यवाद. जय ओशो.