लेकिन टीवी जब आया तो अखबारों से आये रिपोर्टरों को लगा कि कैसे बताएं अपने उन पुराने सूत्रों और नेताओं को कि वो वही फलां अख़बार वाला पत्रकार है जिसे उस की आतुर निगाहें आज भी ढूंढती होंगी.
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अनिल जी का बेबाकीपन, साधना जी का साहसिक पलटवार, संदीप जी और सरिता जी की हमेशा की तरह गुदगुदाने वाली चुहलबाजियाँ, दिनेश जी का पटकथानुमा लेख और अब दीप्ती जी आपका यह अख़बार वाला शेर …. मजा आ गया..
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उससे आज भी बोझ उठवाती है, उसकी कंपकपाते हड्डयों पर ज़्यादा बोझ डलवाती है, घरों की मंज़िलों तक का सफर तय करवाती है और धीरे धीरे वह दिखाई देता है मेरी खिड़की के सामने वाली सीड़ी से उतरता हुआ अख़बार वाला मूर्ति, जिसकी जिंदगी को हम शायद पल दो पल रुककर अख़बार के पन्नों की तरह कभी पढ़ न पा ए.