एक तो समझौतावादी चंदन जो कि सहजता से ही किसी भी किस्म की लेन-देन कर सकता था और दूसरा-अड़ियल चंदन, हठी चंदन, अतिभावुक चंदन, वो चंदन जिसे हर समय सींग फंसाकर रखने की आदत थी।
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एक बार मैंने मजाक में कहा-“डाक्टर साहब, दिखाओ तो ज़रा डायरी, मैं अपना नाम भी देखूँ।” “ओ माई यावे, तेरा नंबर तो दिल पर उकरा हुआ है जहाँ टिपिकस काम नहीं करती।” अकेलेपन ने उसके स्वभाव को अतिभावुक बना दिया था।
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इस पूरी कविता में कहीं भी अतिभावुक, वक्तव्यबाज़, 'नारीवादी' हुए बगै़र कवि इस चौबीस वर्षीया विवाहिता के दाम्पत्य-विहीन, निरुद्देश्य तथा निरर्थक-निष्क्रिय जीवन को हाथी दाँत के माँझियों वाली उस शीशम की नाव के जड़ प्रतीक के ज़रिए और मार्मिक बना देता है जो एक वाहन है और सुंदर है किंतु मात्रा सजावटी और जीवनहीन, जो उसे उसकी घुटन-भरी कैद से कभी मुक्त नहीं करवा सकता: