इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजी द्वारा पूछे गये भगवान् वसिष्ठ, जब तक श्रीरामचन्द्रजी बन्ध की अविद्याजन्यता, विद्या का स्वरूप और उसके साक्षी अपरिच्छिन्न सर्वाधार चैतन्यस्वरूप को नहीं जानते, तब तक जीवन्मुक्ति में इनका विश्वास नहीं हो सकता, इसलिए पहले उनका उपपादन कर, तदुपरान्त इनके प्रश्न का समाधार करूँगा, यों विचार कर सुबोध होने के कारण पहले साक्षी में स्थूलप्रपंचपरम्परा का अध्यारोप दिखलाते हैं।
22.
तो जाग्रत-देश, जाग्रत-काल, जाग्रत-द्रव्य तीनोँसे जो न्यारा है, स्वप्न-देश, स्वप्नकाल, स्वप्न-द्रव्य-तीनोँसे जोरा है, और और सुषुप्तीमेँ धनीभूत देश, घनीभूत-काल, और घनीभूत द्रव्य जो कि दृष्टीमेँ, वृत्तिमेँ लीन हो गये है उनमेँ अलीन जो आत्मवस्तु है वह असलमेँ वस्तुतः देश-काल-वस्तुसे अपरिच्छिन्न है और ब्रह्म भी देश-काल वस्तुसे अपरिछिन्न है ।
23.
यस्ते ददाति रवमस्य वरं ददासि, यो वा मदं वहति तस्य दमं विधत्से | इत्यक्षरद्वयविपर्ययकेलिशीलः किं नाम कुर्वति नमो न मनः करोषि || सूत संहिता भी शिव की महिमा का विस्तार से वर्णन करते हुए बताती है कि शिव काल से अपरिच्छिन्न हैं-कालो माया च तत्कार्यं शिवेनैवाSवृतं बुधाः | शिवः कालानवच्छिन्नः कालतत्वं यथा तथा || शिव की देश-काल से परे की स्थिति का वर्णन स्वयं उपनिषद् करते हैं और वही शिव अनन्त मूर्तियों में प्रकट होते हैं।