वैसे गीता में कृष्ण कहते हैं कि उन्हें भक्त और अभक्त समान रूप से प्रिय हैं, फिर इतने व्रत-उपवास, आडंबर, मंदिर में माथा पटकना आखिर किस लिए?
22.
जो संकल्प मात्र से, दृष्टि मात्र से असाधु को साधु बना दें, दुराचारी को सदाचारी बना दें, अभक्त को भक्त बना दें वे तो साक्षात् ईश्वर-स्वरूप हैं, ईश्वर ही हैं।
23.
-21) ईश्वर विष्वास का फलितार्थ हैं-आत्मविश्वास और सदाशयता के सत्परिणामों पर भरोसा।-22) ईश्वर भक्त अभक्त का बहीखाता नहीं रखता उसके लिये हर ईमानदार अपना और हर बेईमान शैतान की बिरादरी का है।
24.
क्योंकि भक्त को भक्ति की क्या आवश्यकता है, भक्ति की आवश्यकता तो अभक्त को होती है, जो व्यक्ति अपने को अभक्त समझता है उसे ही भक्ति प्राप्त हो पाती है।
25.
क्योंकि भक्त को भक्ति की क्या आवश्यकता है, भक्ति की आवश्यकता तो अभक्त को होती है, जो व्यक्ति अपने को अभक्त समझता है उसे ही भक्ति प्राप्त हो पाती है।
26.
इसीलिये भक्त की संगति मिले तो स्वयं को अभक्त समझते हुए भक्तों की संगति करनी चाहिये और यदि ज्ञानी की संगति मिले तो स्वयं को अज्ञानी समझते हुए ज्ञानीयों की संगति करनी चाहिये।
27.
जो संकल्प मात्र से, दृष्टि मात्र से असाधु को साधु बना दें, दुराचारी को सदाचारी बना दें, अभक्त को भक्त बना दें वे तो साक्षात् ईश्वर-स्वरूप हैं, ईश्वर ही हैं।
28.
अशांत को शांति देना, निगुरे को सगुरा बनाना, अभक्त को भक्ति की तरफ ले जाना भी यज्ञ है और अपनी जो भी सूझबूझ है उसे परहित के लिए खर्चना यह यज्ञ, दान और तप है।
29.
भावार्थ:-तथापि वे भक्त और अभक्त के हृदय के अनुसार सम और विषम व्यवहार करते हैं (भक्त को प्रेम से गले लगा लेते हैं और अभक्त को मारकर तार देते हैं) ।
30.
भावार्थ:-तथापि वे भक्त और अभक्त के हृदय के अनुसार सम और विषम व्यवहार करते हैं (भक्त को प्रेम से गले लगा लेते हैं और अभक्त को मारकर तार देते हैं) ।