अर्थशून्य बाहरी विधिविधान, तीर्थाटन, पर्वस्नान आदि की निस्सारता का संस्कार फैलाने का जो कार्य वज्रयानी सिध्दों और नाथपंथी जोगियों के द्वारा हुआ, उसका उल्लेख हो चुका है।
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' कर्म ' अर्थशून्य विधि-विधानों से निकम्मा हो सकता है, ' ज्ञान ' रहस्य और गुह्य की भावना से पाखंडपूर्ण हो सकता है और ' भक्ति ' इंद्रियोपभोग की वासना से कलुषित हो सकती है।
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बढ़ती ही गयी ट्रेन आगे और आगे-राह में वही क्षण फिर बार-बार जागे फिर वही विदाई की बेला औ ' मैं फिर यात्रा में-लोगों के बावजूद अर्थशून्य आँखों से देखता हुआ तुमको रह गया अकेला।
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किंतु जड़ बाह्यथार्थवाद भोग्य होने के कारण किसी चेतन भोक्ता के अभाव में अपार्थक या अर्थशून्य अथवा निष्प्रयोजन है, अत: उसकी सार्थकता के लिए सांख्य चेतन पुरुष या आत्मा को भी मानने के कारण अध्यात्मवादी दर्शन है।
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अगर संक्षेप में कहें तो, इस नाशवंत, अर्थशून्य संसार में, `अंधा भैंसा` के इस व्यर्थ खेल में हम सदा उलझे रहते हैं और बार-बार शिकस्त मिलने पर, हमारी मजबूरी को हम, `प्रारब्ध या नसीब` का नाम देकर, अपनी सामर्थ्यहीनता को छिपाने की कोशिश करते हैं..!!
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तब केवल राम-नाम का ही भरोसा बच रहता है, परन्तु राम-नाम का कीर्तन तो अष्टायाम तक होता है, शिव क्यों नहीं जगते, शक्ति क्यों नहीं उनके बस में आकर प्रसन्न होती? कारण आप जाकर उन बौड़मों से पूछिये, जो कहते हैं, नाम बिना रूप के अर्थशून्य है।
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अगर संक्षेप में कहें तो, इस नाशवंत, अर्थशून्य संसार में, ` अंधा भैंसा ` के इस व्यर्थ खेल में हम सदा उलझे रहते हैं और बार-बार शिकस्त मिलने पर, हमारी मजबूरी को हम, ` प्रारब्ध या नसीब ` का नाम देकर, अपनी सामर्थ्यहीनता को छिपाने की कोशिश करते हैं..
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अनंत प्रतीक्षा शाम हो चली धुंधली धुंधली, छूट गया आशा का अंचल ओंस रात की बन कर आंसू, पलकों से अब चली निकल सरक रहा है रेत रेत सा, समय हाथ से हर क्षण हर पल धुंआ धुंआ हो धीरे धीरे, घुल गए सब सपनों के बादल रात हो गई कितनी लम्बी, शांत पड़े सब तारा मंडल अंधियारे में भटक भटक के, सिमट गई जीवन की हलचल हुए अजनबी आसपास सब, अंतर मन हो रहा विकल जीवन बन गया एक प्रतीक्षा, और मै अर्थशून्य सा छल. वो सुबह कभी तो आएगी...