जब तक मनुष्य सत्यवादी, त्यागी और अन्तर्मुखी बनकर ब्रह्मचर्य ब्रत का पालन करते हुये जीवन व्यतीत नहीं करता, तब तक उसे आत्मोपलब्धि संभव नहीं ।
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यह आत्मोपलब्धि रहस्यवादियों की उस साधना से भिन्न होती है, जिसमें वे इतने आत्मकेंद्रित हो जाते हैं कि उन्हें मनुष्य की नियति से कुछ भी लेना-देना नहीं रह जाता।
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आत्मान्वेषण और आत्मोपलब्धि की इस कंटक-यात्रा में एक ओर वर्षा अपने परिवार के तीखे विरोध से लहूलुहान होती है और दूसरी ओर आत्मसंशय, लोकापवाद और अपनी रचनात्मक प्रतिभा को मांजने-निखारने वाली दुरूह, काली प्रक्रिया से क्षत-विक्षत।
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कुछ बिरले ही ऐसे निकलते हैं जो पूर्णता की अवस्था को पार कर लेते हैं, क्योंकि ऐसे मनुष्य वे ही होते हैं, जो संसार में तमाम आकर्षणों को ठोकर मारकर विपत्तियों के सिर पर पैर रखकर इस आत्मोपलब्धि को प्राप्त कर लेते हैं, जिसके आगे अन्य सब आपत्तियां तुच्छ हो जाती हैं।