धर्म व्यक्ति के अंतस का प्रकाश है, जो प्रकृति प्रदत्त है, उस प्रकाश को उदीप्त कर संसार को आलोकित करना ही मूल धर्म है, जिसकी कोई भौगोलिक सीमा नहीं होती।
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अँगुलियों से निकलने वाले विद्युत प्रवाहों के परस्पर संपर्क से शरीर के चक्र तथा सुसुप्त शक्तियां जागृत हो शरीर के स्वाभाविक रोग प्रतिरोधक क्षमता को आश्चर्यजनक रूप से उदीप्त तथा परिपुष्ट करती है.
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ऐसा अगर वह कभी कहता भी था तो वह किसी प्रसंग के तात्कालिक प्रभाव को उदीप्त करने वाली महज़ एक विनम्र भाषा भर होती, जिसका एकमात्र उद्देश्य आस्तिक श्रोताओं को अपने वाग्जाल में और-से-और बाँधना भर होता.
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दरबारी कवि होने के कारण कवि केशव ने राज विलास वर्णन का जोविशेष प्रयास किया है उसका एक पक्ष बारहमासा के रूप में उभरा जिसेचित्रकारों ने सामन्ती विलास-वैभव में ढ़ाल कर एक नया स्वरूप प्रदान करप्रेमी-प्रेमिका की भावनाओं को उदीप्त किया.
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उनके व्यक्तित्व का स्पर्श पाकर ' कोई कवि बन जाए सम्भाव्य है ' मैथिलीशरण गुप्त, सियारामशरण गुप्त, सुमित्रानन्दन पन्त, बालकृष्ण शर्मा नवीन, माखनलाल चतुर्वेदी, सोहनलाल द्विवेदी और भवानीप्रसाद मिश्र जैसी प्रतिभाएँ उनके सम्पर्क में आकर उदीप्त हुई हैं।
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हा य... यही क्या उसके पतिदेव हैं? जीवन के ग्यारह वर्ष सर्द-गर्म जिनके साथ व्यतीत किए, वह उठता हुआ यौवन, वे जीवन की उदीप्त अभिलाषाएँ, वे रस-रहस्य की अमिट रूप रेखाएँ हठपूर्वक एक के बाद एक नेत्रों के सामने आने लगीं।
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क्योंकि, अब सूर्य की रश्मियाँ तीव्र होने लगतीं हैं ; अतः शरीर में पाचक अग्नि उदीप्त करती हैं तथा उर्द की डाल क़े रूप में प्रोटीन व चावल क़े रूप में कार्बोहाईड्रेट जैसे पोषक तत्वों को शीघ्र घुलनशील कर देती हैं, इसी लिये इस पर्व पर खिचडी खाने व दान करने का महत्त्व निर्धारित किया गया है.
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अँगुलियों को एक दुसरे से स्पर्श करते हुए स्थिति विशेष में इनकी जो आकृति बनती है, उसे मुद्रा कहते हैं...मुद्रा चिकित्सा में विभिन्न मुद्राओं द्वारा असाध्यतम रोगों से भी मुक्ति संभव है...वस्तुतः भिन्न तत्वों का प्रतिनिधित्व करती हाथ की इन अँगुलियों से विद्युत प्रवाह निकलते हैं.अँगुलियों से निकलने वाले विद्युत प्रवाहों के परस्पर संपर्क से शरीर के चक्र तथा सुसुप्त शक्तियां जागृत हो शरीर के स्वाभाविक रोग प्रतिरोधक क्षमता को आश्चर्यजनक रूप से उदीप्त तथा परिपुष्ट करती है.
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भाई सुभाष नीरव जी, सुनीता जैन की प्रस्तुत कविताओं को पढ़कर मन अघा गया | छोटी पहल की इन कविताओं में गहरी स्त्री-संवेदना गुप्त है जो मन को टटोल की दिशा में उदीप्त करने की व्यापक क्षमता रखती है | सभी कविताओं में ही जो लय और प्रवाह है, वह पाठक को रचना के अंत तक बांधकर रखती है | अन्य कवयित्रियों की तुलना में ये कविताएं वास्तव में दृश्य में अपेक्षाकृत अधिक समय तक प्रतिबिम्बित होती और टिकती भी हैं | आपको और सुनीता जी मेरे बहुत बधाइयाँ |
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आश उम्मीद तुझसे पहले भी थी, तेरे बाद भी महानायिका के साथ एक शाम बेगाने शहर की बेगानी शाम कुछ-कुछ,उबासी लेती हुई चम्पई धुन्धाल्का छा रहा कनेर के पत्तों से लुकछिपाता सूरज थकान छुपाने की कोशिश में संलिप्त कहीं सो गया शायद कैंडल के मुलमुली रोशनी में उदीप्त होता उसका चेहरा गोया,मीर के ग़ज़लों से सजी कोई अल्पना हो जगजीत और गुलजार के मरासीम से संगत करती उसकी खामोशी ईबादत के जाने कौन से गुरुमुखी ईजाद कर दे समय उसके पहलू में किसी बिज़ली के खम्भे में अटके पतंग के तरह फरफरा रहा है...