धर्म कर्म समर्पण परहित का भाव और सत्य उसे उस ऋणात्मकता से मुक्त करके महान बनाने का कार्य करता है जन्म से अपवित्र शरीर केवल महान इसीलिये बन पाया जिसमे सत्य अहिंसा परहित काभाव और अनेकों गुण उसकी अपवित्रता से कई गुने भारी पड़े और वह महान बन पाया सारत: यही कहा जा सकता है कि
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गौर से देखा जाय तो यह ‘ धनात्मकता ' या ‘ ऋणात्मकता ' भी पार्थक्य में नहीं एक दूसरे के परिप्रेक्ष्य में ही अस्तित्वमान होती हैं और इस तरह जो बात हमने पहले कही कि ‘ द्वंद्वात्मक भौतिकवाद चीजों को उनके पार्थक्य में नहीं बल्कि ‘ दूसरी वस्तुओं के साथ इसके अटूट संबंध में ' देखता है ' इस विज्ञान सम्मत उदाहरण द्वारा पुष्ट होती है.