लेखक ने यह मत व्यक्त किया है कि इस अध्याय के लेखन की सार्थकता तभी मानी जाएगी जब इस अध्याय को पढ़ने के बाद पाठक को सदाचरण की प्रेरणा प्राप्त हो सके, यह बोध हो सके कि इन्द्रियों को तृप्त करने वाला सुख एवं मानसिक शान्ति प्रदान करने वाला आचरण एकार्थक नहीं है।