गीत रचने वाली बहू कोठा अमारी में तो रहती नहीं! लेकिन पूरब या पूरब उत्तर के शुभ कोने की ओर मुखातिब अपने फुसौला घर से वृक्षों के ऊपर चढ़ आई कचपचिया को आसमान में देख सकती है।
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अब जब कि कचपचिया की पहचान कृत्तिका नक्षत्र या छ: कृत्तिकाओं या देहाती झुलनिया या सात बहनों या सप्तमातृकाओं से हो चुकी है तो पता करते हैं कि उस दुखियारी बहू ने या उससे सहानुभूति रखने वाले देवर ने कब उन दो पंक्तियों को रचा होगा?
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लम्बी-लम्बी अँगुलियों-सी नन्हीं-नन्हीं तलवारों-सी पन्ने के प्यारे हारों-सी, झूठ न समझे चन्द्र कलाओं-सी नित बढ़ती, सच्चे मोती की लड़ियों-सी, ढेर-ढेर खिल झुण्ड-झुण्ड झिलमिलकर कचपचिया तारों-सी! आः इतनी फलियाँ टूटी, जाड़ो भर खाई, सुबह शाम वे घर-घर पकीं, पड़ोस पास के जाने-अनजाने सब लोगों में बँटबाई बंधु-बांधवों, मित्रों, अभ्यागत, मँगतों ने जी भर-भर दिन-रात महुल्ले भर ने खाई!-कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ!