पर उसने उस बदतमीज़ औरत को कुछ नहीं कहा और हमें सीटों के बीच से दूसरी कतार से बाहर जाने का रास्ता बताया…हम चुपचाप बाहर निकले और अपमानित से होते हुए नीचे जाकर बस में बैठ गये जो टरमिनल तक ले जाने वाली थी.
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मेरा ख़याल यह है कि ऐसा महबूब साहब ने इसलिए नहीं किया होगा कि मजरूह शक़ील से बेहतर लिख सकते थे, बल्कि इसलिए कि वो शायद कुछ नया प्रयोग करना चाह रहे होंगे, अपनी फ्लॉप फ़िल्मों की कतार से बाहर निकलने के लिए।
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काकी कतार से बाहर आ गयी थी, “बाबू, आप ही बताओ; हम सब्जी काहे को बेचता है? पेट के लिए ना. लड़का को पढ़ा दिया, अब नौकरी भी लगा है, माँ कितना दिन खिलायेगा?” “पर हुआ क्या?” “पहले हम बचा-हुआ सब्जी उसका घर-वाली को दे आता था।
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मैं मुस्कुराया, “ आपकी दुकान के पास क्या हल्ला-हंगामा हो रहा था? ” काकी कतार से बाहर आ गयी थी, “ बाबू, आप ही बताओ ; हम सब्जी काहे को बेचता है? पेट के लिए ना. लड़का को पढ़ा दिया, अब नौकरी भी लगा है, माँ कितना दिन खिलायेगा? ” “ पर हुआ क्या? ” ” पहले हम बचा-हुआ सब्जी उसका घर-वाली को दे आता था।
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एक दिन बेहद गरीब दीन हीन, फटे चिथड़े पहने एक अत्यंत कमजोर वृद्ध उस मंदिर में प्रभु दर्शन को पहुँचा, काफी देर धूप में कतार में रहने से और फिर भी मंदिर तक न पहुंच पाने से वृद्ध की हालत बिगड़ गई और बीमार होकर थक कर चूर हो वह कतार से बाहर निकल कर, मंदिर से दूर खड़े एक पेड़ के नीचे बैठ कर सुस्ताने लगा, वह गर्मी से बेहाल प्यास से परेशान और अंदर से बेहद दुखी था ।
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एक दिन बेहद गरीब दीन हीन, फटे चिथड़े पहने एक अत् यंत कमजोर वृद्ध उस मंदिर में प्रभु दर्शन को पहुँचा, काफी देर धूप में कतार में रहने से और फिर भी मंदिर तक न पहुंच पाने से वृद्ध की हालत बिगड़ गई और बीमार होकर थक कर चूर हो वह कतार से बाहर निकल कर, मंदिर से दूर खड़े एक पेड़ के नीचे बैठ कर सुस् ताने लगा, वह गर्मी से बेहाल प् यास से परेशान और अंदर से बेहद दुखी था ।