कुप्रथाएँ कहाँ नही होती? अगर उन्हें नज़र अँदाज़ करें तो तो आदिवासी समाज मे स्त्रियो को दहेज के लिये प्रताड़ित नही किया जाता।
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इनसे उत्पन्न उद्दाम भावनाएं जैसे त्याग, बलिदान और भक्त व भगवान-सा संपूर्ण समर्पण और आरक्षण या फिर इनकी आड़ में चल रही कुप्रथाएँ और अत्याचा र...
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पर दूसरों पर उँगलियाँ उठाते समय सभी भूल जाते हैं की बुराइयाँ, कुप्रथाएँ हर जगह है और हमाम में सब एक जेसे ही हैं और अन्दर से सभी खोखले हैं.
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हमारे खून में बचपन से रची बसी दीवाली हमसे छुट जाए इसका सवाल ही नहीं पैदा होता! यहाँ सिर्फ संकेत है कि हम अपनी कुप्रथाएँ छोड़े बिना खुशियाँ क्यों मनाते हैं!
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धूम-धाम वाली और जेवर-प्रदर्शन के कारण भार-भूत बनकर रह रही खर्चीली शादियाँ, नशेबाजी, विचारों की दुष्टता और आचरणों की भ्रष्टता जैसी अनेकों कुप्रथाएँ गिनी और गिनाई जा सकती हैं।
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हमें तो दोहरी लड़ाई लड़नी होगी क्योंकि एक तरफ पिछड़े मूल्य, पुरानी कुप्रथाएँ और अन्धविश्वास हमारे पाँव की बेड़ियाँ बन रहे हैं तो दूसरी ओर पैसे का निर्मम राज हमारी बोटी-बोटी बेचकर उससे मुनाफा कमाने पर उतारू है।
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ऐसे ही दास प्रथा, जमींदारी, बाल-विवाह नर-बलि छुआछूत, जातिवाद की कितनी ही कुप्रथाएँ पिछली एक-दो शताब्दियों में प्रचलन में थी, पर समय के प्रवाह ने उन सब को उलट कर सीधा कर दिया।
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संतुलित और सुपाच्य भोजन, उचित व्यायाम और नींद अथवा आराम अच्छे स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं, लेकिन कुछ ऐसी कुप्रथाएँ और अंधविश्वास अभी भी कायम हैं जिन पर चलकर मनुष्य स्वस्थ रहने के बजाय बीमार पड़ सकता है।
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@ मनोज भाई, हर हालत में दीवाली मनाई जाएगी...हमारे खून में बचपन से रची बसी दीवाली हमसे छुट जाए इसका सवाल ही नहीं पैदा होता! यहाँ सिर्फ संकेत है कि हम अपनी कुप्रथाएँ छोड़े बिना खुशियाँ क्यों मनाते हैं!
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इसी वातावरण के चलते पढी-लिखी बहुएं, लड़कियां भी उचित व युक्ति-युक्त विरोध नहीं कर पाती और पारिवारिक उत्प्रीडन, स्त्री को पैर की जूती समझना व दहेज़ जैसी कुप्रथाएँ जिनके दूरगामी परिणाम स्वरुप बहुएं जलाना, बहुओं-लड़कियों द्वारा आत्महत्या आदि कुप्रथाएँ फ़ैली हुईं हैं ।