उनकी कविता उदासी को ही देखिए-आधा अधूरा चांद कुम्हलाया हुआ दिखता है क़िले की दीवार से सर टिकाए हुए ये कोई आईना है जिसमें मेरा अक्स दिखता है या ये कोई पाती है कि जिसमें तुम्हारी ख़बर आती है
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हाथ पर पट्टी चढी थी चेहरा कुम्हलाया हुआ था, साफ़ दीख रहा आदमी सताया हुआ था, घबराकर उगलने लगा, क्या बनाऊंगा साहब, खुद बना हुआ हूं, आंख तक करजों में डूबा, कहां जाऊंगा, आप बताओ पंजाब निकल जाऊं कि कश्मीर? इस पर चहकते शराबी डोलने लगे, कश्मीर कश्मीर बोलने.
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छीजता जाता है फूलों से पराग भीतर का आलोक ढंक लेता सात आसमान कम होती जाती दुनिया में भरोसे की जगह उदारता एकाएक आंधी के वेग से चली आती घर के अंदर रहने खेल-खेल में टूटते चले गए बचपन के खिलौने से ज्यादा बड़ी नहीं रहती भूल-गलतियां कुम्हलाया हुआ दिन हर रोज दरवाजे पर आकर बताता है अब कुछ होने वाला नहीं है दुःख यातना और दर्द की कॉपी के पन्ने कई बार तह खुलने से ढीले और मौसम के रंग सुग्गों की हरियाली से भी ज़्यादा चटख़ होते जाते हैं