उसका फ़ायदा यह होता था कि थोड़ा बहुत ऑफ़ीस का काम भी कर लेते थे, अपने व्यक्तिगत काम (चैटिंग, मेल-शेल, नेट भ्रमण अनुगूँज में चुटकुलों की गुँज ******* १ ******* बन्ता सिंह (अपनी बीबी से):
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लेकिन मैं बात कर रहा था शांत पड़े तालाब में पड़ने वाले पत्थर की जिसका नाम था ‘अहो रूपम-अहो ध्वनि ', चमगादड और हिन्दी के चिट्ठे, और उसकी पहली गुँज कुछ ऐसी थी-
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मुझे अच्छा लगा सुन कर, जान कर कि मेरी एक कविता एक विघालय में हर सुबह गुँज उठती हैं और इस लिये में रमेश जी की बहुत आभारी हूँ जिन्होने मेरी कविता को इस लायक समझा ।
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” इस बार वे पूरी ताकत से खड़े रहे और मेरी आँखों में आँख डालकर मेरे जवाब का इन्तजार कर हे थे और मेरे अंदर चन्द्रकांत देवताले की पंक्तियाँ गुँज रही थी-एक दिन मांगनी होगी हमें माफी।
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बचपन बीता, तानो की गुँज मे।मौसम बदला,चार-दिवारी मे।कभी जो खेलना चाहा,इनाम मे मिला,गर्म सलाखो का तमाचा...ये जिन्दगी है?या मौत है?आज भी...कई बेटियों की चिखती आवजपुछ रही है....कहाँ है उनका बचपन?क्या जीना मेरा अधिकार नही?पर ये सवाल घुट के ही रह जाता है...किसी के कानो तक कहाँ पहुँच पाता है!
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दम तोड़ते लैपटाप की सिसकियाँ अभी तक गुँज रही है, चलो उसे दम तोड़ते हुए एक सुकुन तो होगा कि जिस मालिक की सेवा जीवन भर की है उसी की गोद मे दम निकला और इसी कृतज्ञता से भरा मन लेकर वह चल पड़ा अनंत यात्रा की ओर्।
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दम तोड़ते लैपटाप की सिसकियाँ अभी तक गुँज रही है, चलो उसे दम तोड़ते हुए एक सुकुन तो होगा कि जिस मालिक की सेवा जीवन भर की है उसी की गोद मे दम निकला और इसी कृतज्ञता से भरा मन लेकर वह चल पड़ा अनंत यात्रा की ओर्।
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“पथ हजारों थे जिसपर मैं ठोकर खाकर पड़ा हुआ था, चलना सीखा ही तेरे आने की गुँज सुनकर, जो तू चली जाएगी इसकदर...पथ-से, क्या मैं लौट नहीं आऊँगा...उसी भंवर में...” पुत्र का ख़त पिता के नाम…!!! अनायास ही मन हो आया लिखूं आपको अपनी भाषा का एक ख़त, पिता हैं आप! शायद समझेगें पुत्र का दर्द …।