सर्वत्र घोर अँधेरा है करना तुम्हें ही सवेरा है वह कौन है बली जो निगल गया दिनकर को? यदि तुम चाहो तो सूर्य उगा सकते हो, बादलों को बरसा सकते हो, यदि तुम चाहो तो पत्थर को तरल कर सकते हो, पानी में आग लगा सकते हो, यदि तुम चाहो तो पर्वतों पर कमलदल खिला सकते हो, मृतकों में प्राण फूंक सकते हो ।
22.
उदित हुआ है अंतर्मन में सहसा एक विचार सोच रहा हूँ कुछ तो होगा, दूर क्षितिज के पार निर्मम धागों से अब तक है, गुथी हुई यह काया भाग रहा हूँ कब से जाने, फिर भी हूँ भरमाया समय पाश से बच न पाया, घोर अँधेरा छाया चिंतन करता, मंथन करता, क्या खोया क्या पाया अनुत्तरित प्रश्नों को तुझसे अब भी है दरकार सोच रहा हूँ कुछ तो होगा दूर क्षितिज के पा र.
23.
मैं चाहूँ तो सोना कर दूँ, इस धरती की माटी को! फूलों की खुशबू से भर दूँ, सूने मन की की घाटी को! मैं बसंत का विजय राग हूँ, तूफानों में हँसता हूँ! आशाओँ के पंख हैं मेरे, कभी न पीछे मुड़ता हूँ! मुस्कानों के इन्द्रधनुष से, रचता हूँ मैं नया सवेरा! जैसे दीपों के जलने से, मिट जाता है घोर अँधेरा! सच्चाई का नन्हा सूरज, बन कर रोज चमकता हूँ! आशाओँ के पंख हैं मेरे, कभी न पीछे मुड़ता हूँ!!! ”