राजेश जोशी ने लिखा है कि ' चंद्रकांत देवताले की कविता पढ़ते हुए मुझे अक्सर यह महसूस होता है कि वे जनसंकुल समाज-जैसा कि हमारा भारतीय समाज है-कम-से-कम हमारे गाँव कस्बों और छोटे मझौले शहरों का समाज के, हमारी सार्वजनिक लीला भूमि के हिन्दी के अकेले कवि हैं।
22.
मन्दिरों के जनसंकुल द्वार थे अवाक् अचानक आ प्रकट हुआ काल को खिझाता चार्वाक-सहमति के मलबे में जैसे खिल उठा हो तर्क के पलाश का अकेला फूल लाल-लाल! निमाड़ के कड़ाह में उबालते त्रिकाल को चतुर कीमियागर, उत्सुक था सारा संसार-क्या बन कर निकलेगा अमृत कि कालकूट, अथवा निकलेगी कोई पारसमणि इस बार?