कविताको, गूगल स्वप्न भी छल, जागरण भी! / निशा निमन्त्रण-हरिवंशराय बच्चन भूत केवल जल्पना है, औ' भविष्यत कल्पना है, वर्तमान लकीर भ्रम की! और है चौथी शरण भी! स्वप्न भी छल, जागरण भी! मनुज के अधिकार कैसे! हम यहाँ लाचार ऐसे, कर नहीं इनकार सकते, कर नहीं सकते वरण भी! स्वप्न भी छल, जागरण भी! जानता यह भी नहीं मन,
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और इमरती की जानकारी-इत्र और राग जौनपुरी भला कौन ब्लागर चखना, सूंघना और सुनना पसंद नहीं करेगा! बुलबुलों की लड़ाई शायद और ही कहीं इतने भव्य तरीके से आयोजित होती हो! मुझे नहीं लगता की इन सांकृतिक बिन्दुओं पर ब्लॉग के सुधी और जिज्ञासु जनों की रूचि नहीं होगी! इसलिए जौनपुर जल्पना तो जारी रहे तभी मजा आयेगा!
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जब भी नर्वल की गलियों में फिर आता हूँ जो होता है सो खोता हूँ जो खोया था सो पाता हूँ दुख के सुख के उस पार एक विस्तार अपरिचित-चिरपरिचित जिसमें सबको खो जाना है उसके भी पार वह जगह है जिस जगह अभी हम खड़े हुए हैं ठिठके-से अब तो ' वह ' तट भी ' यह ' तट है इस तट पर ही डूबे-डूबे तुम जीवन के जंगम-जल की जल्पना सुनो, चुपचाप सुनो चुपचाप सुनो!
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होकर हो बहतीसरिता महा-मौन की कैसीहो अरूप रूपों को रचतीमौंन मुखर जीवन-छन्दो में, बस तुम ही होती हो श्वेताइक कल को कल्पना बनातीइक कल को जल्पना बनातीवर्त्तमान भ्रम की परछाईस्वप्न-छालित जागरण दिखातीकाल-प्रबल की हर स्वरूप की,जननी क्या तुम हीं हो श्वेताशब्द एक पर अर्थ कई हैडोर एक पर छोर नहीं हैजीवन मरण विलय कर जातेरंग हीन के रंग कई हैहो अनंत का अंत समेटे, फिर भी अंत हीन हो श्वेताहै खुद से संलाप तुम्हारापंच-तत्व का गीत ये न्याराहै अखंड आशेष प्रभा-मय मौंन स्वयम्भू ब्रम्ह तुम्हाराहो अद्रश्य में द्रश्य, द्रष्टि से फिर भी तुम ओझल हो श्वेताविक्रम