जिरहबख्तर और लोहे की टोपी तीर-तुपक से रक्षा कर सकते हैं लेकिन पहाड़ तो उसे उन सब चीजों के साथ कुचल डालेगा।
22.
वो कौन सा जिरहबख्तर है जिसे मां एक बार पहनने के बाद ताउम्र नहीं उतारती.... मसलन...... आगे वे लिखती है......
23.
तमाम कोशिशें नाकाम होती जाती हैं और जिरहबख्तर हो जाते हैं बेकार, उससे आखिरी मुलाकात तक का सब्र भी नहीं रख पाते।
24.
`भूल-गलती बैठी जिरहबख्तर पहनकर तख्त पर ' जैसी पंक्तियां लिखने वाले मुक्तिबोèा ऐसे अकेले कवि हैं, जो लोकतंत्र की दुरभिसंिèायों को सर्वािèाक उजागर करते हैं।
25.
इंसान के चारों ओर माहौल का जिरहबख्तर इतना कसा हुआ और पेचीदा होता है कि वह आजादी से हाथ-पैर भी नहीं संचालित कर सकता।
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जिरहबख्तर की खिलअत को उतारता, हाँफता-काँपता मोटा अमीर कहता, “ओह, इस कमबख्त आवारा मुल्ला नसरुद्दीन ने हम सबकी नाकों में दम कर रखा है।
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कोई फूल न महक जाये इसलिए नाक बंद, कोई सांस हमारे दिल को ना धड़का जाए, इसलिए जिरहबख्तर पहन लेते हैं हम।
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जिरहबख्तर (जालिका, चेने मेल) सुंदर और सुविधाजनक अवश्य था, पर भारी शस्त्रों की चोट से पूर्णतया रक्षा नहीं कर सकता था।
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वह लोकतन्त्र का लबादा उतारकर तानाशाही का जिरहबख्तर पहनने के लिए भी तैयार है और समूची जनता के ख़िलाफ़ एक ख़ूनी युद्ध छेड़ देने के लिए भी तैयार है।
30.
खुद-मुख्तार कोई सोचता उस वक्त-छाये जा रहे हैं सल्तनत पर घने साये स्याह, सुलतानी जिरहबख्तर बना है सिर्फ मिट्टी का, वो-रेत का-सा ढेर-शाहंशाह, शाही धाक का अब सिर्फ सन्नाटा!!