हम खेती में नयी प्रोद्योगिकी के इस्तेमाल से और जीवाश्म ईधन (प्रेट्रोल कोयला आदि) के जमकर प्रयोग से लगातार आगे बढ रहे हैं | अब सवाल ये है इस विलुप्तीकरण की प्रक्रिया में हमारा नम्बर कब आने वाला है?
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यह सच है कि हाल के वर्षो में अक्षय ऊर्जा स्त्रोतों (जैसे सौर, पवन, बायोगैस आदि) की ओर पहले की अपेक्षा कहीं अधिक ध्यान दिया गया है, फिर भी जीवाश्म ईधन (कोयले व तेल) पर जितना खर्च होता है उसके मुकाबले में यह कहीं नहीं ठहरता है ।
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इसलिए क्या विकसित और क्या विकासशील? किसी को नहीं मालूम कि आर्थिक प्रगति और कार्बन उत्सर्जन की इस जोड़ी को कैसे तोड़ा जाए? जोड़ी अनोखी, मेल अनोखा कारें और उद्योग बिजली व तेल जैसे जीवाश्म ईधन पचाकर कार्बन परिवार की गैसें उगलते हैं जिनसे मौसम गरमा रहा है।
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यदि निजी व सार्वजनिक खर्च को मिलाकर देखा जाए तो भविष्य की ऊर्जा जरूरतों के इंतजाम में जितना खर्च हो रहा है, उसमें जीवाश्म ईधन के नए भंडार खोजने पर व पाइप लाइन बनाने आदि पर ही ज्यादा खर्च हो रहा है जबकि अक्षय ऊर्जा की नई व्यवस्था करने पर जो खर्च हो रहा है वह इसकी तुलना में बहुत कम है ।
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एक था पेड़ जो लहलहाता था आंगन में अब जल रहा है मेरे फ़ायर-प्लेस में एक था पशु जो विचरता था बाग में अब पक रहा है मेरे किचन में एक थे पूर्वज जिनकी अस्थियाँ बन के जीवाश्म ईधन जल रही हैं मेरी कार में ऊर्जा न बनती है न मिटती है सूत्र यही सोच कर करता हूँ मन शांत मैं सिएटल ।