अशोक वाजपेयी की ऐसी कविताओं की प्रशस्तियां इन् हीं का एक हास् यास् पद उपोत् पाद लगती हैं और अपने निरर्थक वाग् जाल में उस असंभव ऑक् टोपस की तरह हैं जिसने स् वयं किसी तरह अपनी भुजाओं में गांठ बांध लेने में सफलता प्राप् त कर ली है.
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मेरे पिछले आलेख के अंतिम वाक् य “ वैसे जो भी हो, जिन भविष् यवाणियों को करने के लिए हमें गणनाओं का ओर छोर भी न मिल रहा हो, उसे आसानी से बता देने के लिए ऑक् टोपस और उनके मालिक को बधाई तो दी ही जा सकती है ” पर हमारे कुछ मित्रों को गंभीर आपत्ति हुई है ।